शिकागो वक्तृता: हमारे मतभेद का
कारण - 15 सित. 1893
मैं आप लोगों को एक छोटी सी कहानी सुनाता हूँ। अभी जिन वाग्मी
वक्तामहोदय ने व्याख्यान समाप्त किया हैं,
उनके इस वचन
को आप ने सुना हैं कि ' आओ, हम लोग एक दूसरे को बुरा कहना बंद कर दें', और उन्हे इस बात का बड़ा खेद हैं कि लोगों में
सदा इतना
मतभेद क्यों रहता हैं ।
परन्तु मैं
समझता हूँ कि जो कहानी मैं सुनाने वाला हूँ,
उससे आप
लोगों को इस मतभेद का कारण स्पष्ट हो जाएगा । एक कुएँ में बहुत समय से
एक मेढ़क रहता था । वह वहीं पैदा हुआ था और
वहीं उसका पालन-पोषण हुआ, पर फिर भी वह मेढ़क छोटा ही था । धीरे- धीरे यह मेढ़क उसी कुएँ में
रहते रहते मोटा और चिकना हो गया । अब एक दिन
एक दूसरा मेढ़क, जो समुद्र में रहता था, वहाँ आया और कुएँ में गिर पड़ा ।
"तुम
कहाँ से आये हो?"
"मैं
समुद्र से आया हूँ।" "समुद्र! भला कितना बड़ा हैं वह? क्या वह भी इतना ही बड़ा हैं, जितना मेरा यह कुआँ?"
और यह कहते
हुए उसने कुएँ में एक किनारे से दूसरे किनारे तक
छलाँग मारी। समुद्र वाले मेढ़क ने कहा,
"मेरे मित्र! भला, सुमद्र की तुलना इस छोटे
से कुएँ से किस प्रकार कर सकते हो?"
तब उस कुएँ
वाले मेढ़क ने दूसरी छलाँग मारी और पूछा,
"तो
क्या तुम्हारा समुद्र इतना बड़ा हैं?" समुद्र वाले मेढ़क ने कहा, "तुम कैसी बेवकूफी की बात कर रहे हो! क्या समुद्र की तुलना तुम्हारे कुएँ से हो
सकती हैं?" अब तो कुएँवाले मेढ़क ने कहा,
"जा, जा! मेरे कुएँ से बढ़कर और कुछ हो ही नहीं सकता। संसार में इससे बड़ा और कुछ नहीं हैं! झूठा कहीं
का? अरे, इसे
बाहर निकाल दो।"
यही कठिनाई
सदैव रही हैं।
मैं हिन्दू
हूँ। मैं अपने क्षुद्र कुएँ में बैठा यही समझता हूँ कि मेरा कुआँ ही संपूर्ण संसार हैं। ईसाई भी अपने क्षुद्र कुएँ में
बैठे हुए यही समझता हूँ कि सारा संसार
उसी के कुएँ में हैं। और मुसलमान भी अपने क्षुद्र कुएँ में बैठा हुए उसी को सारा ब्रह्माण्डमानता हैं। मैं आप
अमेरिकावालों को धन्य कहता हूँ, क्योकि आप हम लोगों के इनछोटे छोटे संसारों की क्षुद्र सीमाओं को तोड़ने का महान् प्रयत्न कर रहे हैं, और मैं आशा करता हूँ कि भविष्य में परमात्मा आपके इस उद्योग में सहायता देकर आपका
मनोरथ पूर्ण करेंगे ।