कितना अच्छा होता कि तुम अगर रूपवान भी होते

सम्राट चंद्रगुप्त ने एक दिन अपने
 प्रतिभाशाली मंत्री चाणक्य से कहा-
 “कितना अच्छा होता कि तुम अगर रूपवान भी होते।“
 चाणक्य ने उत्तर दिया,
 "महाराज रूप तो मृगतृष्णा है। आदमी की पहचान तो गुण
 और बुद्धि से ही होती है, रूप से नहीं।“
 “क्या कोई ऐसा उदाहरण है जहाँ गुण के सामने रूप
 फींका दिखे। चंद्रगुप्त ने पूछा।
 "ऐसे तो कई उदाहरण हैं महाराज, चाणक्य ने कहा,
 "पहले आप पानी पीकर मन को हल्का करें बाद में बात
 करेंगे।"
 फिर उन्होंने दो पानी के गिलास बारी बारी से
 राजा की ओर बढ़ा दिये।
 "महाराज पहले गिलास का पानी इस सोने के घड़े
 का था और दूसरे गिलास
 का पानी काली मिट्टी की उस मटकी का था। अब
 आप बताएँ, किस गिलास का पानी आपको मीठा और
 स्वादिष्ट लगा।"
 सम्राट ने जवाब दिया- "मटकी से भरे गिलास
 का पानी शीतल और स्वदिष्ट लगा एवं उससे
 तृप्ति भी मिली।"
 वहाँ उपस्थित महारानी ने मुस्कुराकर कहा,
 "महाराज हमारे प्रधानमंत्री ने बुद्धिचातुर्य से
 प्रश्न का उत्तर दे दिया। भला यह सोने का खूबसूरत
 घड़ा किस काम का जिसका पानी बेस्वाद लगता है।
 दूसरी ओर काली मिट्टी से बनी यह मटकी, जो कुरूप
 तो लगती है लेकिन उसमें गुण छिपे हैं। उसका शीतल
 सुस्वादु पानी पीकर मन तृप्त हो जाता है। अब आप
 ही बतला दें कि रूप बड़ा है अथवा गुण एवं बुद्धि?"

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